Srikanta (Hindi)

Fiction & Literature, Anthologies, Literary Theory & Criticism
Cover of the book Srikanta (Hindi) by Sarat Chandra Chattopadhyay, Sai ePublications & Sai Shop
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Author: Sarat Chandra Chattopadhyay ISBN: 9781311959690
Publisher: Sai ePublications & Sai Shop Publication: June 26, 2014
Imprint: Smashwords Edition Language: Hindi
Author: Sarat Chandra Chattopadhyay
ISBN: 9781311959690
Publisher: Sai ePublications & Sai Shop
Publication: June 26, 2014
Imprint: Smashwords Edition
Language: Hindi

मेरी सारी जिन्दगी घूमने में ही बीती है। इस घुमक्कड़ जीवन के तीसरे पहर में खड़े होकर, उसके एक अध्याापक को सुनाते हुए, आज मुझे न जाने कितनी बातें याद आ रही हैं। यों घूमते-फिरते ही तो मैं बच्चे से बूढ़ा हुआ हूँ। अपने-पराए सभी के मुँह से अपने सम्बन्ध में केवल 'छि:-छि:' सुनते-सुनते मैं अपनी जिन्दगी को एक बड़ी भारी 'छि:-छि:' के सिवाय और कुछ भी नहीं समझ सका। किन्तु बहुत काल के बाद जब आज मैं कुछ याद और कुछ भूली हुई कहानी की माला गूँथने बैठा हूँ और सोचता हूँ कि जीवन के उस प्रभात में ही क्यों उस सुदीर्घ 'छि:-छि:' की भूमिका अंकित हो गयी थी, तब हठात् यह सन्देह होने लगता है कि सब लोग इस 'छि: छि:' को जितनी बड़ी बनाकर देखते थे उतनी बड़ी शायद वह नहीं थी। जान पड़ता है, भगवान जिसे अपनी सृष्टि के ठीक बीच में जबरन धकेल देते हैं शायद उसे भला लड़का कहलाकर एग्जाम पास करने की सुविधा नहीं देते; और न वे उसे गाड़ी-घोड़े पालकी पर लाव-लश्कर के साथ भ्रमण करके 'कहानी' नाम देकर छपाने की ही अभिरुचि देते हैं। उसे बुद्धि तो शायद, वे कुछ दे देते हैं, परन्तु दुनियादार लोग उसे 'सु-बुद्धि' नहीं कहते। इसी कारण उसकी प्रवृत्ति ऐसी असंगत, ऐसी निराली होती है, और उसके देखने की चीजें, और जानने की तृष्णा, स्वभावत: ऐसी बेजोड़ होती हैं कि यदि उसका वर्णन किया जाए तो, शायद, 'सु-बुद्धि' वाले हँसते-हँसते मर जाँय। उसके बाद वह मन्द बालक; न जाने किस तरह, अनादर और अवहेलना के कारण, बुरों के आकर्षण से और भी बुरा होकर, धक्के और ठोकरें खाता हुआ, अज्ञात-रूप से अन्त में किसी दिन अपयश की झोली कन्धों पर रखकर कहीं चल देता है, और बहुत समय तक उसका कोई पता नहीं लगता।

अतएव इन सब बातों को रहने देता हूँ। जो कुछ कहने बैठा हूँ वही कहता हूँ। परन्तु कहने से ही तो कहना नहीं हो जाता। भ्रमण करना एक बात है और उसका वर्णन करना दूसरी बात। जिसके भी दो पैर हैं, वह भ्रमण कर सकता है किन्तु दो हाथ होने से ही तो किसी से लिखा नहीं जा सकता। लिखना तो बड़ा कठिन है। सिवाय इसके, बड़ी भारी मुश्किल यह है कि भगवान ने मेरे भीतर कल्पना-कवित्व की एक बूँद भी नहीं डाली। इन अभागिनी आँखों से जो कुछ दीखता है, ठीक वही देखता हूँ। वृक्ष को ठीक वृक्ष ही देखता हूँ और पहाड़-पर्वतों को पहाड़-पर्वत। जल की ओर देखने से वह जल के सिवाय और कुछ नहीं जान पड़ता। आकाश में बादलों की तरफ आँखें फाड़कर देखते-देखते मेरी गर्दन अवश्य दु:खने लगी है, बादल बादल ही नजर आए हैं, उनमें किसी की निबिड़ केश-राशि तो क्या दीखेगी, कभी बाल का टुकड़ा भी खोजे नहीं मिला। चन्द्रमा की ओर देखते-देखते आँखें पथरा गयी हैं; परन्तु उसमें भी कभी किसी का मुख-उख नजर न आया। इस प्रकार भगवान ने ही जिसकी विडम्बना की हो उसके द्वारा कवित्व-सृष्टि कैसे हो सकती है? यदि हो सकती है तो केवल यही कि वह सच-सच बात सीधी तरह से कह दे। इसलिए मैं यही करूँगा।

किन्तु मैं घुमक्कड़ क्यों हो गया, यह बताने के पहले उस व्यक्ति का कुछ परिचय देना आवश्यक है जिसने जीवन के प्रभात में ही मुझे इस नशे में मत्त कर दिया था। उसका नाम था इन्द्रनाथ। हम दोनों का प्रथम परिचय एक फुटबाल-मैच में हुआ। जानता नहीं कि वह आज जीवित है या नहीं। क्योंकि, बरसों पहले एक दिन वह बड़े सुबह उठकर, घर-बार, जमीन-जायदाद और अपने कुटुम्ब को छोड़कर केवल एक धोती लेकर चला गया और फिर लौटकर नहीं आया। ओह, वह दिन आज किस तरह याद है।

स्कूल के मैदान में बंगाली और मुसलमान छात्रों में फुटबाल-मैच था। संध्याख हो रही थी। मगन होकर देख रहा था। आनन्द की सीमा न थी। हठात्-अरे यह क्या! तड़ातड़-तड़ातड़ शब्द और 'मारो साले को, पकड़ो साले को' की पुकार मच गयी। मैं विह्वल-सा हो गया। दो-तीन मिनट,- बस इतने में कहाँ कौन गायब हो गया, निश्चय ही न कर पाया। ठीक तौर से पता लगा तब, जब कि मेरी पीठ पर आकर एक छतरी का पूरा बेंट तड़ाक से टूट गया तथा और भी दो-तीन बेंट सिर और भी दो-तीन बेंट सिर और पीठ पर पड़ने को उद्यत दीखे। देखा, पाँच-सात मुसलमान छोकरों ने मेरे चारों ओर व्यूह-रचना कर ली है और भाग जाने को जरा-सा भी रास्ता नहीं छोड़ा है। और भी एक बेंट,- और भी एक। ठीक इसी समय जो मनुष्य बिजली के वेग से उस व्यूह को भेदता हुआ मेरे आगे आकर खड़ा हो गया, वह था इन्द्रनाथ। रंग उसका काला था। नाक वंशी के समान, कपाल प्रशस्त और सुडौल, मुख पर दो-चार चेचक के दाग। ऊँचाई मेरे बराबर ही थी, किन्तु उम्र मुझसे कुछ अधिक थी। कहने लगा, ''कोई डर नहीं है, तुम मेरे पीछे-पीछे बाहर निकल आओ।''

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मेरी सारी जिन्दगी घूमने में ही बीती है। इस घुमक्कड़ जीवन के तीसरे पहर में खड़े होकर, उसके एक अध्याापक को सुनाते हुए, आज मुझे न जाने कितनी बातें याद आ रही हैं। यों घूमते-फिरते ही तो मैं बच्चे से बूढ़ा हुआ हूँ। अपने-पराए सभी के मुँह से अपने सम्बन्ध में केवल 'छि:-छि:' सुनते-सुनते मैं अपनी जिन्दगी को एक बड़ी भारी 'छि:-छि:' के सिवाय और कुछ भी नहीं समझ सका। किन्तु बहुत काल के बाद जब आज मैं कुछ याद और कुछ भूली हुई कहानी की माला गूँथने बैठा हूँ और सोचता हूँ कि जीवन के उस प्रभात में ही क्यों उस सुदीर्घ 'छि:-छि:' की भूमिका अंकित हो गयी थी, तब हठात् यह सन्देह होने लगता है कि सब लोग इस 'छि: छि:' को जितनी बड़ी बनाकर देखते थे उतनी बड़ी शायद वह नहीं थी। जान पड़ता है, भगवान जिसे अपनी सृष्टि के ठीक बीच में जबरन धकेल देते हैं शायद उसे भला लड़का कहलाकर एग्जाम पास करने की सुविधा नहीं देते; और न वे उसे गाड़ी-घोड़े पालकी पर लाव-लश्कर के साथ भ्रमण करके 'कहानी' नाम देकर छपाने की ही अभिरुचि देते हैं। उसे बुद्धि तो शायद, वे कुछ दे देते हैं, परन्तु दुनियादार लोग उसे 'सु-बुद्धि' नहीं कहते। इसी कारण उसकी प्रवृत्ति ऐसी असंगत, ऐसी निराली होती है, और उसके देखने की चीजें, और जानने की तृष्णा, स्वभावत: ऐसी बेजोड़ होती हैं कि यदि उसका वर्णन किया जाए तो, शायद, 'सु-बुद्धि' वाले हँसते-हँसते मर जाँय। उसके बाद वह मन्द बालक; न जाने किस तरह, अनादर और अवहेलना के कारण, बुरों के आकर्षण से और भी बुरा होकर, धक्के और ठोकरें खाता हुआ, अज्ञात-रूप से अन्त में किसी दिन अपयश की झोली कन्धों पर रखकर कहीं चल देता है, और बहुत समय तक उसका कोई पता नहीं लगता।

अतएव इन सब बातों को रहने देता हूँ। जो कुछ कहने बैठा हूँ वही कहता हूँ। परन्तु कहने से ही तो कहना नहीं हो जाता। भ्रमण करना एक बात है और उसका वर्णन करना दूसरी बात। जिसके भी दो पैर हैं, वह भ्रमण कर सकता है किन्तु दो हाथ होने से ही तो किसी से लिखा नहीं जा सकता। लिखना तो बड़ा कठिन है। सिवाय इसके, बड़ी भारी मुश्किल यह है कि भगवान ने मेरे भीतर कल्पना-कवित्व की एक बूँद भी नहीं डाली। इन अभागिनी आँखों से जो कुछ दीखता है, ठीक वही देखता हूँ। वृक्ष को ठीक वृक्ष ही देखता हूँ और पहाड़-पर्वतों को पहाड़-पर्वत। जल की ओर देखने से वह जल के सिवाय और कुछ नहीं जान पड़ता। आकाश में बादलों की तरफ आँखें फाड़कर देखते-देखते मेरी गर्दन अवश्य दु:खने लगी है, बादल बादल ही नजर आए हैं, उनमें किसी की निबिड़ केश-राशि तो क्या दीखेगी, कभी बाल का टुकड़ा भी खोजे नहीं मिला। चन्द्रमा की ओर देखते-देखते आँखें पथरा गयी हैं; परन्तु उसमें भी कभी किसी का मुख-उख नजर न आया। इस प्रकार भगवान ने ही जिसकी विडम्बना की हो उसके द्वारा कवित्व-सृष्टि कैसे हो सकती है? यदि हो सकती है तो केवल यही कि वह सच-सच बात सीधी तरह से कह दे। इसलिए मैं यही करूँगा।

किन्तु मैं घुमक्कड़ क्यों हो गया, यह बताने के पहले उस व्यक्ति का कुछ परिचय देना आवश्यक है जिसने जीवन के प्रभात में ही मुझे इस नशे में मत्त कर दिया था। उसका नाम था इन्द्रनाथ। हम दोनों का प्रथम परिचय एक फुटबाल-मैच में हुआ। जानता नहीं कि वह आज जीवित है या नहीं। क्योंकि, बरसों पहले एक दिन वह बड़े सुबह उठकर, घर-बार, जमीन-जायदाद और अपने कुटुम्ब को छोड़कर केवल एक धोती लेकर चला गया और फिर लौटकर नहीं आया। ओह, वह दिन आज किस तरह याद है।

स्कूल के मैदान में बंगाली और मुसलमान छात्रों में फुटबाल-मैच था। संध्याख हो रही थी। मगन होकर देख रहा था। आनन्द की सीमा न थी। हठात्-अरे यह क्या! तड़ातड़-तड़ातड़ शब्द और 'मारो साले को, पकड़ो साले को' की पुकार मच गयी। मैं विह्वल-सा हो गया। दो-तीन मिनट,- बस इतने में कहाँ कौन गायब हो गया, निश्चय ही न कर पाया। ठीक तौर से पता लगा तब, जब कि मेरी पीठ पर आकर एक छतरी का पूरा बेंट तड़ाक से टूट गया तथा और भी दो-तीन बेंट सिर और भी दो-तीन बेंट सिर और पीठ पर पड़ने को उद्यत दीखे। देखा, पाँच-सात मुसलमान छोकरों ने मेरे चारों ओर व्यूह-रचना कर ली है और भाग जाने को जरा-सा भी रास्ता नहीं छोड़ा है। और भी एक बेंट,- और भी एक। ठीक इसी समय जो मनुष्य बिजली के वेग से उस व्यूह को भेदता हुआ मेरे आगे आकर खड़ा हो गया, वह था इन्द्रनाथ। रंग उसका काला था। नाक वंशी के समान, कपाल प्रशस्त और सुडौल, मुख पर दो-चार चेचक के दाग। ऊँचाई मेरे बराबर ही थी, किन्तु उम्र मुझसे कुछ अधिक थी। कहने लगा, ''कोई डर नहीं है, तुम मेरे पीछे-पीछे बाहर निकल आओ।''

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