Path Ke Davedar (Hindi)

Fiction & Literature, Literary Theory & Criticism, Anthologies
Cover of the book Path Ke Davedar (Hindi) by Sarat Chandra Chattopadhyay, Sai ePublications & Sai Shop
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Author: Sarat Chandra Chattopadhyay ISBN: 9781311464293
Publisher: Sai ePublications & Sai Shop Publication: June 26, 2014
Imprint: Smashwords Edition Language: Hindi
Author: Sarat Chandra Chattopadhyay
ISBN: 9781311464293
Publisher: Sai ePublications & Sai Shop
Publication: June 26, 2014
Imprint: Smashwords Edition
Language: Hindi

अपूर्व के मित्र मजाक करते, ''तुमने एम. एस-सी. पास कर लिया, लेकिन तुम्हारे सिर पर इतनी लम्बी चोटी है। क्या चोटी के द्वारा दिमाग में बिजली की तरंगें आती जाती रहती हैं?''

अपूर्व उत्तर देता, ''एम. एस-सी. की किताबों में चोटी के विरुध्द तो कुछ लिखा नहीं मिलता। फिर बिजली की तरंगों के संचार के इतिहास का तो अभी आरम्भ ही नहीं हुआ है। विश्वास न हो तो एम. एस-सी. पढ़ने वालों से पूछकर देख लो।''

मित्र कहते, ''तुम्हारे साथ तर्क करना बेकार है।''

अपूर्व हंसकर कहता, ''यह बात सच है, फिर भी तुम्हें अकल नहीं आती।''

अपूर्व सिर पर चोटी रखे, कॉलेज में छात्रवृत्ति और मेडल प्राप्त करके परीक्षाएं भी पास करता रहा और घर में एकादशी आदि व्रत और संध्या-पूजा आदि नित्य-कर्म भी करता रहा। खेल के मैदानों में फुटबाल, किक्रेट, हॉकी आदि खेलने में उसको जितना उत्साह था प्रात:काल मां के साथ गंगा स्नान करने में भी उससे कुछ कम नहीं था। उसकी संध्या-पूजा देखकर भौजाइयां भी मजाक करतीं, बबुआ जी पढ़ाई-लिखाई तो समाप्त हुई, अब चिमटा, कमंडल लेकर संन्यासी हो जाओ। तुम तो विधवा ब्राह्मणी से भी आगे बढ़े जा रहे हो।''

अपूर्व हंसकर कहता, ''आगे बढ़ जाना आसान नहीं है भाभी! माता जी के पास कोई बेटी नहीं है। उनकी उम्र भी काफी हो चुकी है। अगर बीमार पड़ जाएंगी तो पवित्र भोजन बनाकर तो खिला सकूंगा। रही चिमटा, कमंडल की बात, सो वह तो कहीं गया नहीं?''

अपूर्व मां के पास जाकर कहता, ''मां! यह तुम्हारा अन्याय है। भाई जो चाहें करें लेकिन भाभियां तो मुर्गा नहीं खातीं। क्या तुम हमेशा अपने हाथ से ही भोजन बनाकर खाओगी?''

मां कहती, ''एक जून एक मुट्ठी चावल उबाल लेने में मुझे कोई तकलीफ नहीं होती। और जब हाथ-पांव काम नहीं करेंगे तब तक मेरी बहू घर में आ जाएगी।''

अपूर्व कहता, ''तो फिर एक ब्राह्मण पंडित के घर से बहू, मंगवा क्यों नहीं देतीं? उसे खिलाने की सामर्थ्य मुझमें नहीं है-लेकिन तुम्हारा कष्ट देखकर सोचता हूं कि चलो भाइयों के सिर पर भार बनकर रह लूंगा।''

मां कहती, ''ऐसी बात मत कह रे अपूर्व, एक बहू क्या, तू चाहे तो घर भर को बिठाकर खिला सकता है।''

''कहती क्या हो मां? तुम सोचती हो कि भारतवर्ष में तुम्हारे पुत्र जैसा और कोई है ही नहीं?''

और यह कहकर वह तेजी से चला जाता।

अपूर्व के विवाह के लिए लोग बड़े भाई विनोद को आकर परेशान करते। विनोद ने जाकर मां से कहा, ''मां, कौन-सी निष्ठावान जप-तपवाली लड़की है, उसके साथ अपने बेटे का ब्याह करके किस्सा खत्म करो। नहीं तो मुझे घर छोड़कर भाग जाना पड़ेगा। बड़ा होने के कारण लोग समझते हैं कि घर का बड़ा-बूढ़ा मैं ही हूं।''

पुत्र के इन वाक्यों से करुणामयी अधीर हो उठी। लेकिन बिना विचलित हुए मधुर स्वर में बोली, ''लोग ठीक ही समझते हैं बेटा। उनके बाद तुम ही तो घर के मालिक हो। लेकिन अपूर्व के संबंध में किसी को वचन मत देना। मुझे रूप और धन की आवश्यकता नहीं है। मैं स्वयं देख-सुनकर तय करूंगी।''

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अपूर्व के मित्र मजाक करते, ''तुमने एम. एस-सी. पास कर लिया, लेकिन तुम्हारे सिर पर इतनी लम्बी चोटी है। क्या चोटी के द्वारा दिमाग में बिजली की तरंगें आती जाती रहती हैं?''

अपूर्व उत्तर देता, ''एम. एस-सी. की किताबों में चोटी के विरुध्द तो कुछ लिखा नहीं मिलता। फिर बिजली की तरंगों के संचार के इतिहास का तो अभी आरम्भ ही नहीं हुआ है। विश्वास न हो तो एम. एस-सी. पढ़ने वालों से पूछकर देख लो।''

मित्र कहते, ''तुम्हारे साथ तर्क करना बेकार है।''

अपूर्व हंसकर कहता, ''यह बात सच है, फिर भी तुम्हें अकल नहीं आती।''

अपूर्व सिर पर चोटी रखे, कॉलेज में छात्रवृत्ति और मेडल प्राप्त करके परीक्षाएं भी पास करता रहा और घर में एकादशी आदि व्रत और संध्या-पूजा आदि नित्य-कर्म भी करता रहा। खेल के मैदानों में फुटबाल, किक्रेट, हॉकी आदि खेलने में उसको जितना उत्साह था प्रात:काल मां के साथ गंगा स्नान करने में भी उससे कुछ कम नहीं था। उसकी संध्या-पूजा देखकर भौजाइयां भी मजाक करतीं, बबुआ जी पढ़ाई-लिखाई तो समाप्त हुई, अब चिमटा, कमंडल लेकर संन्यासी हो जाओ। तुम तो विधवा ब्राह्मणी से भी आगे बढ़े जा रहे हो।''

अपूर्व हंसकर कहता, ''आगे बढ़ जाना आसान नहीं है भाभी! माता जी के पास कोई बेटी नहीं है। उनकी उम्र भी काफी हो चुकी है। अगर बीमार पड़ जाएंगी तो पवित्र भोजन बनाकर तो खिला सकूंगा। रही चिमटा, कमंडल की बात, सो वह तो कहीं गया नहीं?''

अपूर्व मां के पास जाकर कहता, ''मां! यह तुम्हारा अन्याय है। भाई जो चाहें करें लेकिन भाभियां तो मुर्गा नहीं खातीं। क्या तुम हमेशा अपने हाथ से ही भोजन बनाकर खाओगी?''

मां कहती, ''एक जून एक मुट्ठी चावल उबाल लेने में मुझे कोई तकलीफ नहीं होती। और जब हाथ-पांव काम नहीं करेंगे तब तक मेरी बहू घर में आ जाएगी।''

अपूर्व कहता, ''तो फिर एक ब्राह्मण पंडित के घर से बहू, मंगवा क्यों नहीं देतीं? उसे खिलाने की सामर्थ्य मुझमें नहीं है-लेकिन तुम्हारा कष्ट देखकर सोचता हूं कि चलो भाइयों के सिर पर भार बनकर रह लूंगा।''

मां कहती, ''ऐसी बात मत कह रे अपूर्व, एक बहू क्या, तू चाहे तो घर भर को बिठाकर खिला सकता है।''

''कहती क्या हो मां? तुम सोचती हो कि भारतवर्ष में तुम्हारे पुत्र जैसा और कोई है ही नहीं?''

और यह कहकर वह तेजी से चला जाता।

अपूर्व के विवाह के लिए लोग बड़े भाई विनोद को आकर परेशान करते। विनोद ने जाकर मां से कहा, ''मां, कौन-सी निष्ठावान जप-तपवाली लड़की है, उसके साथ अपने बेटे का ब्याह करके किस्सा खत्म करो। नहीं तो मुझे घर छोड़कर भाग जाना पड़ेगा। बड़ा होने के कारण लोग समझते हैं कि घर का बड़ा-बूढ़ा मैं ही हूं।''

पुत्र के इन वाक्यों से करुणामयी अधीर हो उठी। लेकिन बिना विचलित हुए मधुर स्वर में बोली, ''लोग ठीक ही समझते हैं बेटा। उनके बाद तुम ही तो घर के मालिक हो। लेकिन अपूर्व के संबंध में किसी को वचन मत देना। मुझे रूप और धन की आवश्यकता नहीं है। मैं स्वयं देख-सुनकर तय करूंगी।''

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