Author: | Premchand | ISBN: | 9788180320668 |
Publisher: | General Press | Publication: | August 1, 2015 |
Imprint: | Global Digital Press | Language: | Hindi |
Author: | Premchand |
ISBN: | 9788180320668 |
Publisher: | General Press |
Publication: | August 1, 2015 |
Imprint: | Global Digital Press |
Language: | Hindi |
मुंशी रामसेवक भौंहें चढ़ाए हुए घर से निकले और बोले, "इस जीने से तो मरना भला है। मृत्यु को प्राय: इस तरह से जितने निमंत्रण दिए जाते हैं, यदि वह सबको स्वीकार करती तो आज सारा संसार उजाड़ दिखाई देता।"
मुंशी रामसेवक चाँदपुर गाँव के एक बड़े रईस थे। रईसों के सभी गुण इनमें भरपूर थे। मानव चरित्र की दुर्बलताएँ उनके जीवन का आधार थीं। वह नित्य मुंसिफ़ी कचहरी के हाते में एक नीम के पेड़ के नीचे कागज़ों का बस्ता खोले एक टूटी सी चौकी पर बैठे दिखाई देते थे, किसी ने कभी उन्हें किसी इजलास पर क़ानूनी बहस या मुक़दमे की पैरवी करते नहीं देखा। परंतु उन्हें सब मुख़्तार साहब कहकर पुकारते थे। चाहे तूफ़ान आए, पानी बरसे, ओले गिरें, पर मुख़्तार साहब वहाँ से टस-से-मस न होते। जब वह कचहरी चलते तो देहातियों के झुंड के झुंड उनके साथ हो लेते। चारों ओर से उन पर विश्वास और आदर की दृष्टि पड़ती। सबसे प्रसिद्ध था कि उनकी जीभ पर सरस्वती विराजती है। इसे वकालत कहो या मुख़्तारी, परंतु वह केवल कुल-मर्यादा की प्रतिष्ठा का पालन था। आमदनी अधिक न होती थी। चाँदी के सिक्कों की तो चर्चा ही क्या, कभी-कभी ताँबे के सिक्के भी निर्भय उनके पास आने में हिचकते थे, मुंशी जी की कानूनदानी में कोई संदेह न था। परंतु पास के बखेड़े ने उन्हें विवश कर दिया था। ख़ैर जो हो, उनका यह पेशा केवल प्रतिष्ठा-पालन के निमित्त था। नहीं तो उनके निर्वाह का मुख्य साधन आस-पास की अनाथ, पर खाने-पीने में सुखी विधवाओं और भोले-भाले किंतु धनी वृद्धों की श्रद्धा थी। विधवाएँ अपना रुपया उनके यहाँ अमानत रखतीं। बूढ़े अपने कपूतों के डर से अपना धन उन्हें सौंप देते। पर रुपया एक बार मुट्ठी में जाकर फिर निकलना भूल जाता था। वह ज़रूरत पड़ने पर कभी-कभी कर्ज़ ले लेते थे। भला बिना कर्ज़ लिये किसी का काम चल सकता है? भोर की साँझ के करार पर रुपया लेते, पर साँझ कभी नहीं आती थी। सारांश ये की मुंशीजी कर्ज़ लेकर देना सीखे नहीं थे। यह उनकी कुल प्रथा थी। यही सब मामले बहुधा मुंशीजी के सुख-चैन मे विघ्न डालते थे। कानून और अदालत का तो उन्हें कोई डर न था। इस मैदान में उनका सामना करना पानी में मगर से लड़ना था।
प्रेमचंद की मशहूर कहानियाँ (Search the book by ISBN)
ईदगाह (ISBN: 9788180320606)
पूस की रात (ISBN: 9788180320613)
पंच-परमेश्वर (ISBN: 9788180320620)
बड़े घर की बेटी (ISBN: 9788180320637)
नमक का दारोगा (ISBN: 9788180320651)
कजाकी (ISBN: 9788180320644)
गरीब की हाय (ISBN: 9788180320668)
शतरंज के खिलाड़ी (ISBN: 9788180320675)
सुजान भगत (ISBN: 9788180320729)
रामलीला (ISBN: 9788180320682)
धोखा (ISBN: 9788180320699)
जुगनू की चमक (ISBN: 9788180320736)
बेटों वाली विधवा (ISBN: 9788180320743)
दो बैलों की कथा (ISBN: 9788180320750)
बड़े भाई साहब (ISBN: 9788180320705)
घरजमाई (ISBN: 9788180320767)
दारोगाजी (ISBN: 9788180320774)
कफ़न (ISBN: 9788180320781)
बूढ़ी काकी (ISBN: 9788180320798)
दो भाई (ISBN: 9788180320712)
मुंशी रामसेवक भौंहें चढ़ाए हुए घर से निकले और बोले, "इस जीने से तो मरना भला है। मृत्यु को प्राय: इस तरह से जितने निमंत्रण दिए जाते हैं, यदि वह सबको स्वीकार करती तो आज सारा संसार उजाड़ दिखाई देता।"
मुंशी रामसेवक चाँदपुर गाँव के एक बड़े रईस थे। रईसों के सभी गुण इनमें भरपूर थे। मानव चरित्र की दुर्बलताएँ उनके जीवन का आधार थीं। वह नित्य मुंसिफ़ी कचहरी के हाते में एक नीम के पेड़ के नीचे कागज़ों का बस्ता खोले एक टूटी सी चौकी पर बैठे दिखाई देते थे, किसी ने कभी उन्हें किसी इजलास पर क़ानूनी बहस या मुक़दमे की पैरवी करते नहीं देखा। परंतु उन्हें सब मुख़्तार साहब कहकर पुकारते थे। चाहे तूफ़ान आए, पानी बरसे, ओले गिरें, पर मुख़्तार साहब वहाँ से टस-से-मस न होते। जब वह कचहरी चलते तो देहातियों के झुंड के झुंड उनके साथ हो लेते। चारों ओर से उन पर विश्वास और आदर की दृष्टि पड़ती। सबसे प्रसिद्ध था कि उनकी जीभ पर सरस्वती विराजती है। इसे वकालत कहो या मुख़्तारी, परंतु वह केवल कुल-मर्यादा की प्रतिष्ठा का पालन था। आमदनी अधिक न होती थी। चाँदी के सिक्कों की तो चर्चा ही क्या, कभी-कभी ताँबे के सिक्के भी निर्भय उनके पास आने में हिचकते थे, मुंशी जी की कानूनदानी में कोई संदेह न था। परंतु पास के बखेड़े ने उन्हें विवश कर दिया था। ख़ैर जो हो, उनका यह पेशा केवल प्रतिष्ठा-पालन के निमित्त था। नहीं तो उनके निर्वाह का मुख्य साधन आस-पास की अनाथ, पर खाने-पीने में सुखी विधवाओं और भोले-भाले किंतु धनी वृद्धों की श्रद्धा थी। विधवाएँ अपना रुपया उनके यहाँ अमानत रखतीं। बूढ़े अपने कपूतों के डर से अपना धन उन्हें सौंप देते। पर रुपया एक बार मुट्ठी में जाकर फिर निकलना भूल जाता था। वह ज़रूरत पड़ने पर कभी-कभी कर्ज़ ले लेते थे। भला बिना कर्ज़ लिये किसी का काम चल सकता है? भोर की साँझ के करार पर रुपया लेते, पर साँझ कभी नहीं आती थी। सारांश ये की मुंशीजी कर्ज़ लेकर देना सीखे नहीं थे। यह उनकी कुल प्रथा थी। यही सब मामले बहुधा मुंशीजी के सुख-चैन मे विघ्न डालते थे। कानून और अदालत का तो उन्हें कोई डर न था। इस मैदान में उनका सामना करना पानी में मगर से लड़ना था।
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