यादों में तुम

Yaadon Men Tum

Fiction & Literature, Poetry
Cover of the book यादों में तुम by Vinod Sagar, Book Bazooka
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Author: Vinod Sagar ISBN: 1230002060033
Publisher: Book Bazooka Publication: December 22, 2017
Imprint: Book Bazooka Language: English
Author: Vinod Sagar
ISBN: 1230002060033
Publisher: Book Bazooka
Publication: December 22, 2017
Imprint: Book Bazooka
Language: English

मैंने ‘यादों में तुम’ (काव्य-संग्रह) पूरी तरह से प्रेम पर केंद्रित किया है और अपनी कविताओं के द्वारा प्रेम के विविध आयामों को पाठकों एवं समीक्षकों के समक्ष लाने का प्रयास किया है। मैंने अधिकांश कविताएँ समाज में व्याप्त भौतिक प्यार को केन्द्र में रखकर लिखा है, ताकि समय रहते प्रेम जैसे पाक शय को वासना से बचाया जा सके। ऐसा नहीं है कि मैं कोई विद्वान हूँ और अपनी विद्वत्ता को उजागर कर रहा। मगर समाज में आज जो भौतिक प्यार का आडम्बर लगता जा रहा, वह किसी भी मायने में हमारे और हमारे समाज के लिए हितकर नहीं है। कितनी अज़ीब बात है कि हमारे यहाँ लगभग 95 फीसदी फ़िल्में प्रेम पर आधारित होती हैं, वहीं समाज में 95 फीसदी प्रेम-विवाह विफल हो जाते हैं। आख़िर ऐसा क्यों होता है? जब हम इस यक्ष प्रश्न को तलाशने की कोशिश करते हैं, तो हम पाते हैं कि हमारा प्रेम, प्रेम था ही नहीं, वह बस दैहिक सुख का ज़रिया था। जिस कारण हम प्रेम जैसे विराट शय को बहुत ही सरल एवं सुलभ समझने की नादानी कर बैठते हैं। मैंने इस काव्य-संग्रह में विद्वानों के प्रेम पर बोले सुविचारों की पुनरावृत्ति नहीं की है, बल्कि आधुनिक प्रेम के विविध झंझावतों को पाठकों के समक्ष रखने का प्रयास किया है।

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मैंने ‘यादों में तुम’ (काव्य-संग्रह) पूरी तरह से प्रेम पर केंद्रित किया है और अपनी कविताओं के द्वारा प्रेम के विविध आयामों को पाठकों एवं समीक्षकों के समक्ष लाने का प्रयास किया है। मैंने अधिकांश कविताएँ समाज में व्याप्त भौतिक प्यार को केन्द्र में रखकर लिखा है, ताकि समय रहते प्रेम जैसे पाक शय को वासना से बचाया जा सके। ऐसा नहीं है कि मैं कोई विद्वान हूँ और अपनी विद्वत्ता को उजागर कर रहा। मगर समाज में आज जो भौतिक प्यार का आडम्बर लगता जा रहा, वह किसी भी मायने में हमारे और हमारे समाज के लिए हितकर नहीं है। कितनी अज़ीब बात है कि हमारे यहाँ लगभग 95 फीसदी फ़िल्में प्रेम पर आधारित होती हैं, वहीं समाज में 95 फीसदी प्रेम-विवाह विफल हो जाते हैं। आख़िर ऐसा क्यों होता है? जब हम इस यक्ष प्रश्न को तलाशने की कोशिश करते हैं, तो हम पाते हैं कि हमारा प्रेम, प्रेम था ही नहीं, वह बस दैहिक सुख का ज़रिया था। जिस कारण हम प्रेम जैसे विराट शय को बहुत ही सरल एवं सुलभ समझने की नादानी कर बैठते हैं। मैंने इस काव्य-संग्रह में विद्वानों के प्रेम पर बोले सुविचारों की पुनरावृत्ति नहीं की है, बल्कि आधुनिक प्रेम के विविध झंझावतों को पाठकों के समक्ष रखने का प्रयास किया है।

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